शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

''श्री बांके बिहारी मंदिर ,वृन्दावन''


आओ दोस्तो ,श्री कृष्ण के मंदिरों  की शुरुआत एक प्राचीन मंदिर से करते हैं बांके बिहारी मन्दिर ,वृन्दावन |वृन्दावन उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले की धार्मिक नगरी है जिसमें यह मंदिर वृन्दावन धाम के सुंदर एवं प्राचीन इलाके में स्थित है |




इसका निर्माण स्वामी हरिदास ने 1864 में करवाया था | दिल्ली से इसकी दूरी लगभग 139 किलोमीटर है, इसलिए परिवार संग सुविधा से जाने के लिए हमने एक ट्रैवलर बुक की ,जो ठीक 6.30 बजे सुबह पहुँच गई , 7 बजे हम इस में सवार होकर कुछ सदस्यों को पटेलनगर से लेकर  निकल पड़े इस धार्मिक सफ़र पर | सुंदर श्याम के भजनों के संग ,सुहानी ठंडी ठंडी पवन का आनंद लेते हुए हम अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगे|
                   कुछ नाश्ते की इच्छा हुई तो गुलशन के ढाबे की याद आई ,इसलिए हमने मुरथल में रुक कर पेट पूजा की ,कुछ देर सुस्ताने के बाद हम पुनः अपने गंतव्य कि ओर चल दिए , मधुर संगीत ने जैसे सफ़र आसान कर दिया ,हँसते गाते हम 1.30 बजे के लगभग वृन्दावन पहुँच गए |
           'कृष्ण सुधामा धाम' वृन्दावन  में पहले से ही कमरे बुक थे ,इसलिए जाकर कुछ स्नैक्स लिए और  सब कुछ देर के लिए  आराम करने लगे ,जिसकी बालकोनी से कृपालु जी महाराज के 'प्रेम मंदिर' का मनमोहक दृश्य देखा |
4 बजे हम श्री बांके बिहारी जी मंदिर के दर्शन के लिए दोबारा से ट्रैवलर में बैठ कर निकल पड़े ,ट्रैवलर को सड़क किनारे रोक कर ,हम पैदल ही पुरातनता की  याद दिलाती संकरी गलिओं से होते हुए मंदिर की तरफ बढने लगे ,जो कृष्ण गीतों से फाल्गुनी रंगों में रंगी अपनी तरफ आकर्षित कर रहीं थी|

    जैसे जैसे मंदिर के प्रांगन की तरफ बढने लगे ,एक डर सा हवा में तैरने लगा ,बहुत भीड़ थी श्रदालु अपनी मंजिल कि ओर बढ़ रहे थे |तभी एक भक्त बोला आगे बंदर हैं किसी का चश्मा ले गए हैं संभल कर चलना ,उन सबसे बचते बचाते अंदर पहुंचे तो लगा किसी पुरातन विभाग की कोई इमारत में आ गए हैं ,बहुत सारे मंदिर के रक्षक घुमा फिरा कर बांके बिहारी के दर्शनों के लिए सब को आगे बढ़ा रहे थे ,मंदिर में यहाँ बांके बिहारी जी की प्रतिमा स्थापित थी बिल्कुल अँधेरा था,जैसा कि बताया जाता है ,बांके बिहारी जी से आँखें मिल जाएँ तो वो आपके साथ ही चल पड़ते हैं ,इसीलिए मंदिर में अंधेरा रहता है और पर्दा बार बार हटाया जाता है|


      बहुत अधिक भीड़ होने के कारण मैं आगे जाकर मंदिर में झांक भी नहीं सकी ,कुछ लोग प्रभु के बन्दों को रिश्वत देकर प्रभु दर्शन करते पाए गए | मंदिर में फोटो लेने कि अनुमति नहीं थी ,खराब प्रबंधन और बंदरों के प्रकोप के कारण हमने मोबाइल ना निकालना ही सही समझा|
      मेरी सलाह है की आपको इस मंदिर के बारे में पूरी जानकारी नेट से मिल जाएगी इसलिए वहां जाकर अपने प्रभु विश्वास को ठेस न पहुंचाएं | आगे इसकी जानकारी के बारे में बताती हूँ और कुछ तस्वीरें भी आप तक पहुंचाती हूँ , जो मुझे गूगल बाबा से मिली ...


    श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं
        संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मनाते है।
श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया। सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी, बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत 1975 में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया। तब इस सेठ ने वेरी, कोलकत्ता, रोहतक, इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफी सहायता प्रदान कर रहा है।


           श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं । और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है |
         स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे। एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे।किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये।
         श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– 'हे प्रभु में घर जा रही हुँ, किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े।ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।
झाँकी का अर्थ..

                     श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं,  पता चला कि वे अपने एक भक्त की गवाही देने अलीगढ़ चले गये हैं। तभी से ऐसा नियम बना दिया कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा। ऐसी ही बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित है।
एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया। इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। यहाँ एक विलक्षण बात यह है कि यहाँ मंगल आरती नहीं होती। यहाँ के गोसाईयों का कहना हे कि ठाकुरजी नित्य-रात्रि में रास में थककर भोर में शयन करते हैं। उस समय इन्हें जगाना उचित नहीं है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बांके बिहारी जी की जय
    सार्थक और महत्वपूर्ण आलेख के माध्यम से
    यह इतिहास लिखा है आपने
    बहुत बहुत बधाई

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मिलित हों ख़ुशी होगी

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  2. पोस्ट सार्थक हुई, वृन्दावन के कई अनछुए पह्लुयों पर आपने लिखा है.

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